कोटे के भीतर कोटा मंजूर, हाशिए पर पड़ी SC-ST जातियों को फायदा, विस्तार से समझें-SC का फैसला

Last Updated on 01/08/2024 by Arun jain

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से फैसला देकर साफ कर दिया है कि राज्यों को आरक्षण के लिए कोटा के भीतर कोटा बनाने का अधिकार है यानी राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए सब कैटेगरी बना सकती हैं. राज्य विधानसभाएं इसे लेकर कानून बनाने में समक्ष होंगी. इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने 2004 के अपने पुराने फैसले को पलट दिया है. हालांकि, कोर्ट का यह भी कहना था कि सब कैटेगिरी का आधार उचित होना चाहिए. मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने ये फैसला सुनाया.

कोर्ट के फैसले से पंजाब अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 2006 और तमिलनाडु अरुंथथियार अधिनियम पर मुहर लग गई है. इससे पहले 2004 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार से जुड़े मामले में फैसला दिया था कि राज्य सरकारें नौकरी में आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों की सब कैटेगरी नहीं बना सकतीं. पंजाब सरकार का तर्क था कि इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले के तहत यह स्वीकार्य था, जिसने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के भीतर सब कैटेगरी की अनुमति दी थी. पंजाब सरकार ने मांग रखी थी कि अनुसूचित जाति के भीतर भी सब कैटेगरी की अनुमति दी जानी चाहिए. 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि इस पर बड़ी बेंच द्वारा फिर से विचार किया जाना चाहिए.

जस्टिस बेला त्रिवेदी फैसले से असहमत

आज सुप्रीम कोर्ट ने 6:1 के बहुमत से फैसला सुनाया और कहा, पिछड़े समुदायों में हाशिए पर पड़े लोगों के लिए अलग से कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की सब-कैटेगरी जायज है. हालांकि, जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस फैसले से असहमति जताई.

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि कोटा के भीतर कोटा गुणवत्ता के विरुद्ध नहीं है. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग से आने वाले लोग अक्सर सिस्टम के भेदभाव के कारण प्रगति की सीढ़ी पर आगे नहीं बढ़ पाते. सब कैटेगरी संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती. हालांकि राज्य अपनी मर्जी या राजनीतिक लाभ के आधार पर सब कैटेगरी तय नहीं कर सकते और उनके फैसले न्यायिक समीक्षा के अधीन होंगे.

‘जमीनी हकीकत से इनकार नहीं कर सकते’

जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि ज्यादा पिछड़े समुदायों को प्राथमिकता देना राज्य का कर्तव्य है. एससी/एसटी वर्ग में सिर्फ कुछ ही लोग आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं. जमीनी हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता और एससी/एसटी में ऐसी श्रेणियां हैं, जिन्हें सदियों से ज्यादा उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. राज्यों को सब कैटेगरी देने से पहले एससी और एसटी श्रेणियों के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक पॉलिसी लानी चाहिए. सही मायने में समानता दिए जाने का यही एकमात्र तरीका है. 

जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत अनुसूचित जातियों पर भी उसी तरह लागू होता है, जैसे यह ओबीसी पर लागू होता है. मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र ने देश में दलित वर्गों के लिए आरक्षण का पुरजोर बचाव किया और कहा, सरकार SC-ST आरक्षण के बीच सब कैटेगरी के पक्ष में है.

क्या होता है कोटा के भीतर कोटा?

कोटा के भीतर कोटा का मतलब है आरक्षण के पहले से आवंटित प्रतिशत के भीतर एक अलग आरक्षण व्यवस्था लागू करना. यह मुख्य रूप से यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे पिछड़े और जरूरतमंद समूहों तक पहुंचे, जो आरक्षण प्रणाली के तहत भी उपेक्षित रह जाते हैं. इसका उद्देश्य आरक्षण के बड़े समूहों के भीतर छोटे, कमजोर वर्गों का अधिकार सुनिश्चित करना है ताकि वे भी आरक्षण का लाभ उठा सकें. उदाहरण के लिए अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के भीतर अलग-अलग समूहों को आरक्षण दिया जा सकता है ताकि उन समूहों को ज्यादा प्रतिनिधित्व और लाभ मिल सके जो सामाजिक या आर्थिक रूप से ज्यादा वंचित हैं.

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के क्या मायने?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ हो गया है कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में सब कैटेगरी बना सकती हैं जिससे मूल और जरूरतमंद कैटेगिरी को आरक्षण का ज्यादा फायदा मिल सकेगा. हालांकि, यदि राज्य एक या ज्यादा श्रेणी को अनुसूचित जाति के तहत 100% आरक्षण देने का निर्णय लेते हैं तो यह छेड़छाड़ के समान होगा. क्योंकि यह अन्य श्रेणियों को लाभ से वंचित करने जैसा होगा. सरकार के पास जातियों का डेटा होना चाहिए. इस डेटा का आधार जमीनी सर्वे होना चाहिए. इसी आधार पर कोटे में कोटे वाली जाति का निर्धारण किया जाना चाहिए.

चूंकि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को अवसर प्रदान करना है, लेकिन अक्सर बड़े समूहों के भीतर कुछ समूह ज्यादा लाभ उठा लेते हैं, जिससे अन्य उपेक्षित रह जाते हैं. जैसे- ओबीसी आरक्षण में विभाजन. कई राज्यों में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण को ज्यादा पिछड़े और कम पिछड़े समूहों में विभाजित किया गया है ताकि अधिक पिछड़े वर्गों को अधिक लाभ मिल सके. कुछ राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को भी विभाजित किया गया है ताकि इनमें भी सबसे कमजोर वर्गों को प्राथमिकता दी जा सके.

आरक्षण की इस व्यवस्था को कुछ लोग विभाजनकारी मानते हैं और तर्क देते हैं कि इससे समुदायों के बीच दरार बढ़ सकती है. वहीं एक बड़ा वर्ग इसे जरूरी मानता है.

सब कैटेगरी रिजर्वेशन के उदाहरण

तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों ने SC, ST और OBC श्रेणियों के भीतर विभिन्न उप-श्रेणियों को आरक्षण देने की व्यवस्था की है. तमिलनाडु में पिछड़ा वर्ग (BC), अत्यंत पिछड़ा वर्ग (MBC), और अति पिछड़ा वर्ग (Vanniyar) जैसी सब-कैटेगरी में ओबीसी आरक्षण लागू किया गया है. कर्नाटक में अनुसूचित जाति के भीतर दो सब कैटेगरी कोडवा और माडिगा को अलग-अलग आरक्षण दिया गया है. 

संविधान में क्या प्रावधान है?

संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को विशेष दर्जा देते समय जाति का वर्णन नहीं किया है कि कौन सी जातियां इसमें आएंगी. ये अधिकार केंद्र के पास है. अनुच्छेद 341 के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को एससी और एसटी कहा जाता है. एक राज्य में SC के रूप में अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में SC नहीं भी हो सकती है.

राज्य सरकारें क्या कर सकती हैं? 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य सरकारें सब कैटेगरी रिजर्वेशन देने के लिए बड़े और महत्वपूर्ण कदम उठा सकती हैं. राज्य सरकारें सामाजिक और आर्थिक आंकड़े एकत्रित करके विभिन्न सब कैटेगरी की स्थिति का एनालिसिस कर सकती हैं. इसके लिए सर्वे, जनगणना और रिसर्च का सहारा लिया जा सकता है. इसके अलावा, विभिन्न सब कैटेगरी की स्थिति का आकलन करने और आरक्षण की जरूरत को समझने के लिए एक्सपर्ट कमेटियों का गठन भी किया जा सकता है. ये कमेटियां विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेंगी और सुझाव देंगी. एक बार लाभार्थियों की पहचान हो जाने के बाद सब कैटेगरी रिजर्वेशन दिया जा सकता है. यह शिक्षा, रोजगार और अन्य सरकारी सेवाओं के लिए लागू किया जा सकता है.

राज्य सरकारें सब कैटेगरी रिजर्वेशन को कानूनी मान्यता देने के लिए विधानमंडल में विधेयक पेश कर सकती हैं. इसके साथ ही अगर कोई कानूनी चुनौती आती है तो सरकार इस पर न्यायिक समीक्षा के जरिए कोर्ट में अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकती है. सरकारें अपने राज्यों में सार्वजनिक परामर्श आयोजित कर सकती हैं, जिसमें विभिन्न समुदायों के नेताओं, सामाजिक संगठनों और नागरिकों की राय ली जा सकती है, इससे पारदर्शिता बढ़ती है और नीतियों को समर्थन मिलता है.

अन्य उपायों में पहले से मौजूद आरक्षण श्रेणियों का पुन: मूल्यांकन किया जा सकता है और उसमें बदलाव किया जा सकता है. इसमें आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों को अलग-अलग आरक्षण प्रदान करने का प्रावधान किया जा सकता है. हालांकि, सब कैटेगरी रिजर्वेशन को लागू करने के लिए स्पष्ट नियम और प्रक्रियाएं बनाना जरूरी होगा. इसमें आरक्षण की प्रक्रिया, लाभार्थियों की पहचान और आरक्षण का वितरण शामिल करना होगा. सब कैटेगरी रिजर्वेशन की निगरानी और समीक्षा के लिए स्वतंत्र संस्थाओं का गठन किया जा सकता है. यह सुनिश्चित करेगा कि आरक्षण का लाभ सही लोगों तक पहुंच रहा है.

देश में कितनी अनुसूचित जाति?

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में देश में 1,263 एससी जातियां थीं. अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, अंडमान और निकोबार एवं लक्षद्वीप में कोई समुदाय अनुसूचित जाति के रूप में चिह्नित नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट में आज कैसे चली सुनवाई…

कोर्ट: हमने पहले के फैसले को खारिज कर दिया है. 
CJI: हमारा मानना है कि सब कैटेगरी की अनुमति है.
जस्टिस बेला त्रिवेदी ने असहमति जताई.
CJI:
ऐतिहासिक साक्ष्य स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि दलित वर्ग एक समान वर्ग नहीं है और सामाजिक परिस्थितियां दर्शाती हैं कि उसके अंतर्गत सभी वर्ग एक समान नहीं हैं. मध्य प्रदेश में 25 जातियों में से सिर्फ 9 अनुसूचित जातियां हैं.
CJI: अनुच्छेद 15, 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को किसी जाति को सब कैटेगरी करने से रोकता हो.
CJI: हमने ऐतिहासिक साक्ष्यों के जरिए यह भी साबित किया है कि राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित अनुसूचित जाति एक विषम वर्ग है. अनुच्छेद 15, 16 और 341 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो एससी के लिए सब कैटेगरी को रोकता हो. राज्य परस्पर पिछड़ेपन का आकलन करने के लिए कोई भी उपाय अपना सकता है.
CJI: यदि पैरामीटर छुआछूत है तो यह जरूरी नहीं है कि इसके आधार पर परस्पर पिछड़ापन भी उचित हो, लेकिन राज्य को इसे अनुभवजन्य और मात्रात्मक डेटा द्वारा साबित करना होगा. राज्य अपनी सनक या राजनीतिक लाभ के आधार पर सब कैटेगरी तैयार नहीं कर सकता. यह न्यायिक समीक्षा के अधीन है. राज्य किसी वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए सब कैटेगरी कर सकता है.
कोर्ट: हम 2004 के फैसले को खारिज करते हैं.
जस्टिस बीआर गवई: हम कुछ और कारण जोड़कर सीजेआई के विचार से सहमत हैं. डॉ. अंबेडकर ने 1949 में अपने भाषण में कहा था कि जब तक हमारे पास सामाजिक लोकतंत्र नहीं होगा, तब तक राजनीतिक लोकतंत्र का कोई फायदा नहीं है. ईवी चिन्नैया केस में मूल गलती यह है कि यह इस समझ पर आगे बढ़े कि अनुच्छेद 341 आरक्षण का आधार है. पिछड़े समुदायों को तरजीह देना राज्य का कर्तव्य है. एससी/एसटी वर्ग के सिर्फ कुछ लोग ही आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं. एससी/एसटी के भीतर ऐसी श्रेणियां हैं जिन्होंने सदियों से उत्पीड़न का सामना किया है. संविधान सभा में बहस का संदर्भ दिया गया है. 

2004 में SC ने कहा था, ये सिर्फ राष्ट्रपति को अधिकार

2004 में ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार से जुड़े केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जाति की सूची में जातियों को हटाने और जोड़ने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है. संविधान सभी अनुसूचित जातियों को एकल सजातीय समूह मानता है. अगर सभी अनुसूचित जातियों को एक ग्रुप माना गया है तो सब कैटेगरी कैसे हो सकता है. सामाजिक असमानता के आधार पर अनुसूचित जातियों को विशेष सुरक्षा प्रदान की गई है, क्योंकि इन जातियों के खिलाफ छुआछूत की भावना थी. आरक्षण का लाभ आरक्षित जातियों के जरूरतमंद यानी सबसे कमजोर तबके तक पहुंचे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू किया. इसे 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता केस के फैसले में लागू किया गया था. क्रीमी लेयर का नियम ओबीसी (अदर बैकवर्ड क्लास) में लागू होता है. जबकि यह अनुसूचित जाति पर 2018 में प्रमोशन के केस में लागू किया गया. केंद्र सरकार ने 2018 के इस फैसले पर रिव्यू करने की गुहार लगाई थी.

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पंजाब सरकार ने क्या कानून लाया था?

दरअसल, 1975 में पंजाब सरकार ने आरक्षित सीटों को दो श्रेणियों में विभाजित करके अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण नीति पेश की थी. एक बाल्मीकि और मजहबी सिखों के लिए और दूसरी बाकी अनुसूचित जाति वर्ग के लिए. 30 साल तक ये नियम लागू रहा. उसके बाद 2006 में ये मामला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट पहुंचा और ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले का हवाला दिया गया. पंजाब सरकार को झटका लगा और इस नीति को रद्द कर दिया गया. चिन्नैया फैसले में कहा गया था कि एससी श्रेणी के भीतर सब कैटेगरी की अनुमति नहीं है. क्योंकि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है.

बाद में पंजाब सरकार ने 2006 में बाल्मीकि और मजहबी सिखों को फिर से कोटा दिए जाने को लेकर एक नया कानून बनाया, जिसे 2010 में फिर से हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. हाई कोर्ट ने इस नीति को भी रद्द कर दिया. ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. पंजाब सरकार ने तर्क दिया कि इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले के तहत यह स्वीकार्य था, जिसने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के भीतर सब कैटेगरी की अनुमति दी थी. पंजाब सरकार ने तर्क दिया कि अनुसूचित जाति के भीतर भी इसकी अनुमति दी जानी चाहिए.

2020 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने पाया कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के फैसले पर एक बड़ी बेंच द्वारा फिर से विचार किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि एससी श्रेणी के भीतर सब कैटेगरी की अनुमति नहीं है. उसके बाद सीजेआई के नेतृत्व में सात जजों की बेंच का गठन किया गया, जिसने जनवरी 2024 में तीन दिनों तक मामले में दलीलें सुनीं और उसके बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

देश में आरक्षण को लेकर क्या व्यवस्था है?

अनुसूचित जाति (SC): SC श्रेणी के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों को 15% आरक्षण दिया जाता है.
अनुसूचित जनजाति (ST): ST श्रेणी के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों को 7.5% आरक्षण दिया जाता है.
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): OBC श्रेणी के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों को 27% आरक्षण दिया जाता है. OBC श्रेणी में क्रीमी लेयर (आर्थिक रूप से संपन्न) और नॉन-क्रीमी लेयर (आर्थिक रूप से कमजोर) का भी विभाजन है, जिसमें नॉन-क्रीमी लेयर को आरक्षण का लाभ मिलता है.
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS): सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को 10% आरक्षण दिया गया है, जो अन्य आरक्षण के अतिरिक्त है. जनवरी 2019 में संविधान संशोधन बिल लाकर सवर्णों के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया है. यह आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया जाता है और सामान्य वर्ग के उन लोगों को ही मिलता है जिनकी सालाना आय 8 लाख रुपये से कम है. 

शिक्षा और रोजगार में आरक्षण

केंद्र सरकार की नौकरियां: सरकारी नौकरियों में SC, ST, OBC और EWS श्रेणियों के लिए आरक्षण निर्धारित है. उच्च शिक्षण संस्थानों में भी इन श्रेणियों के लिए आरक्षण दिया जाता है, जिसमें केंद्रीय विश्वविद्यालय और IIT, IIM जैसी संस्थान शामिल हैं.
राज्य स्तरीय आरक्षण:  तमिलनाडु में 69% आरक्षण लागू है, जिसमें OBC, MBC और SC/ST श्रेणियों के लिए आरक्षण शामिल है.
महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिए आरक्षण और OBC, SC, ST के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना: यहां भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष आरक्षण दिया गया है.

Source (PTI) (NDTV) (HINDUSTANTIMES)