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सादगी के शिल्प में गढ़ा है रामदरश मिश्र का जीवन, मुश्किल वक्त में भी आस्था के साथ करते रहे साहित्य-सृजन

साहित्य के शिखर पुरुष रामदरश मिश्र अपने सौवें वर्ष में हैं, जिनसे हमें साहित्य और जीवन में एक आदर्श जीवन की प्रेरणा मिलती है. पिछले दिनों उन्हें मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का राष्ट्रीय कबीर सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई. इससे पहले पकी उम्र में उन्हें सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान और साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले. बस, लिखना और लिखना ही उनके लिए महत्वपूर्ण था. कोई आठ दशकों से चली आती उनकी सृजन-यात्रा अब भी निरंतर जारी है. वे अपनी सरल सादगी के साथ निरंतर लिखते जा रहे हैं और सहज ही आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर किसी से आगे निकलने की कोई होड़, कोई हड़बड़ी उनमें नहीं है. 

सिर्फ लिखना ही नहीं, अपने से बाद वाली पीढ़ियों बल्कि एकदम नया लिख रहे लेखकों को भी पढ़ना और उनसे संवाद करते रहना रामदरश जी को प्रिय है. इस दृष्टि से वे एक परंपरा के मूर्तिमान प्रतीक हैं. साहित्य में आस्था और विश्वास की बात करने वाले बहुतेरे हैं. पर रामदरश मिश्र सही अर्थों में आस्था और विश्वास के लेखक हैं, जो अपने विश्वास को निरंतर यथार्थ की कसौटी पर भी कसते रहते हैं, और यही चीज उनके व्यक्तित्व को सर्वांगपूर्ण बनाती है. 

मनुष्य में है उनकी आस्था 

रामदरश जी की रचनाओं को पढ़ें या उनके निकट जाकर उनके व्यक्तित्व की लकीरों को पढ़ें, उनकी बातें सुनें… इस बात की तरफ आपका ध्यान जरूर जाएगा कि वे जीवन से बहुत मजबूती से और गहरे आंतरिक लगाव से जुड़े हैं और उनके पैर पूरी तरह जमीन पर हैं. इसीलिए उनकी आस्था जितनी मनुष्य में है, उतनी किसी और में नहीं. उनके बीज शब्द है- गांव, मिट्टी, पानी, परंपरा और अपने लोग. मां और पिता की भावुकता, खासकर पिता के फक्कड़ स्वभाव और गांव की मिट्टी के खिंचाव और मस्ती भरे परिवेश ने इसे यकीनन कुछ और बढ़ा दिया.

रामदरश जी का बचपन गांव के परिवेश में, प्रकृति, स्कूल, खेत-खलिहान, हाट-बाजार और पर्व-त्योहार के साथ बीता. एक तरफ घर की अफाट निर्धनता, कमजोर कच्ची भीतें, टपकते छप्पर, निर्धनता से पैदा हुए दुख, क्षोभ और अपमान, हर साल फूत्कारती हुई आती बाढ़ का आतंक और दूसरी ओर गांव के जीवन की भावनात्मक समृद्धि, इनसानी संवेदना और गान-बजाने की मस्ती. शायद जीवन की इस खुली पाठशाला से ही रामदरश जी ने जीवन के बड़े-बड़े पाठ सीखे.

इसी बीच थोड़ी-बहुत तुकबंदी भी शुरू हो गई. वे कोई लोकगीत सुनते या कविता पढ़ते तो उन्हें लगता, ‘अरे, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूं.’ और यों भीतर का जो भराव था, जो रचनात्मक समृद्धि थी, उसने कविता की ओर बह आने का क्षीण ही सही, मगर रास्ता जरूर तलाश लिया था.

मुश्किल वक्त में भी नहीं भूले साहित्य-सृजन

रामदरश जी के लिए ऐसा भी समय आया, जो अजब तरह के संघर्ष और तनाव का समय है. बनारस से गुजरात, गुजरात से दिल्ली. कई तरह की मुश्किलें और दुरभिसंधियां. अंतत: दिल्ली आए तो आजीविका के लिए एक पिछड़ गई दौड़ में शामिल होना उनकी मजबूरी थी. पर इस सबके बीच वे जिस चीज को नहीं भूले, वह था उनका साहित्य-सृजन, जिसमें वे पूरी शिद्दत, ईमानदारी और अडिग निष्ठा से जुटे रहे. मानो उन्होंने जान लिया हो कि जीवन की सारी उखाड़-पछाड़ और भागदौड़ के बीच, एक साहित्य ही है जो उनका संबल है, और वही उनकी पहचान भी है.

रामदरश जी की एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे अपनी कविता की जमीन और अपने कवि की ‘प्राणशक्ति’ और निजीपन की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपने आंगन का एक कोना कच्चा छोड़ दिया है, इसलिए न वे बनावटी हुए और न जमीन से उनका रिश्ता ही खत्म हुआ! रामदरश जी की कविताओं में यह कविता सबसे अलग और खास मुझे इसलिए लगती है, क्योंकि यह अकेली कविता रामदरश जी के कवि का ‘सही और संपूर्ण परिचय’ भी है!

हालांकि अपनी लेखकीय उपलब्धियों को हासिल करने में लिए उन्होंने न कभी उतावली दिखाई और न औरों की तरह बढ़-चढ़कर हाथ मारे. उनकी एक बढ़िया और बहुचर्चित गजल के शेर चंद अल्फाज में उनके संघर्ष की पूरी कहानी कह डालते हैं- 

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे.
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफर धीरे-धीरे.
जहां आप पहुंचे छ्लांगें लगाकर,
वहां मैं भी आया, मगर धीरे-धीरे.

सच पूछिए तो एक लेखक, एक बड़े साहित्यकार के रूप में रामदरश मिश्र का जीवन बहुत सुंदर है, स्पृहणीय और एक आदर्श है. 

सादगी के शिल्प में ढली कविताएं

रामदरश मिश्र समकालीन कविता के सबसे सहज और सिद्ध कवि हैं. यही उनकी विशेषता भी है, यही बड़प्पन भी. उनकी कविता-यात्रा आज से कोई अस्सी बरस पहले शुरू हुई थी, और आज तक थमी नहीं है. लगता है, उनकी कलम में एक गहरी प्यास, गहरी तड़प है वह सब कहने की, जो उन्होंने बड़ी विकलता के साथ अपने आसपास देखा-भाला और भीतर तक महसूस किया. किस्म-किस्म के अनुभवों से पगी अपनी सीधी, सहज जीवन–यात्रा में जो कुछ उन्होंने जिया, वह खुद-ब-खुद उनकी कविताओं में ढलता जाता है, और वे कविताएं इतने सहज रूप में सामने आती हैं कि हर किसी को वे अपनी, बिल्कुल अपनी कविताएं लगती हैं. हजारों दिलों में वे दस्तक देती हैं और होंठ उन्हें गुनगुनाए बिना नहीं रह पाते.

रामदरश जी के ये गीत न तो छायावादी गीत हैं और न उत्तर-छायावादियों के-से कवि-सम्मेलनी गीत हैं. ये वे गीत हैं जिनमें गांव अपनी पूरी लोक-संस्कृति, लोकगीतों, आख्यानों और सुख-दुख-अभाव के धूप-छांही रंगों के साथ मौजूद है. लिहाजा रामदरश जी के गीतों की राह भी कुछ अलग ही है, जो जल्दी ही यथार्थ के गझिन रंगों से मिलकर उन्हें नई कविता की ओर ले आई लेकिन आश्चर्य, कविता और गीत उनकी सृजन-यात्रा में लगभग साथ-साथ चलते रहे. 

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पिछले दो दशकों में आए रामदरश जी के कविता संग्रह ‘आम के पत्ते’, ‘आग की हंसी’ और ‘मैं तो यहां हूं’ उनकी उस सिद्धावस्था की कविताएं हैं, जिसे चतुर्दिक सम्मान मिला. इनमें ‘आम के पत्ते’, जिस पर रामदरश जी को व्यास सम्मान भी मिला है, कई मायनों में उत्कृष्ट संग्रह है और उनकी पूरी काव्य-यात्रा की चुनिंदा कविताओं का संग्रह तैयार करना हो, तो संभवतः ‘आम के पते’ की सर्वाधिक कविताओं को आपको सहेजना होगा. 

इसी तरह ‘कलम’ भी बड़ी मार्मिक कविता है, जिसके साथ भावनाओं का पूरा एक रेला है. यही कलम है जिससे हम बचपन में मोटा सा ‘क’ लिखते हैं और हमारा मन जैसे खुशी से चहक उठता है.

मेरे सबसे अच्छे दिन वे होते हैं
जब मैं आज की धरती पर
कल का आकाश रचने वाली
अंगुलियों में फंसी होती हूंं
मुझमें बहने लगती है फागुन की अल्हड़ हवा
और मैं घाटी-घाटी में पलाश सी दहक उठती हूं
खेतों-खेतों में पकती फसल सी बज उठती हू
उमड़ने लगती है सावन की घटा
और मैं लहराते धान की तरह
किसान की आंखों में सपने बुनने लगती हूं

धीर-धीरे कथा की शर्तों से मुक्त होती कहानियां

कविता की तुलना में रामदरश जी के कथा-लेखन की शुरुआत कुछ देर से हुई. पर उनकी कथा-यात्रा भी कोई सत्तर बरसों से निरंतर चलती आई है, और उनकी कहानियों की बेशक एक अलग शख्सियत और मिजाज है, जिसे समझे बिना रामदरश जी को समझना संभव नहीं है.

रामदरश जी की कहानियों में चरित्रों के स्वाभाविक विकास के साथ-साथ एक सहज सादगी है, और उनमें बहुत कुछ ऐसा मूल्यवान है, जो आपको आम जन की मार्मिक संवेदना से जुड़ी उनकी कथाधारा में ही मिलेगा. ‘खाली घर’ रामदरश जी की कहानियों का पहला संग्रह है, जिसमें कई ऐसी मर्मस्पर्शी कहानिया हैं, जिन्होंने पाठकों और साहित्यिकों का ध्यान आकर्षित किया। तब से उनकी कथा-यात्रा का निरंतर विकास हुआ है और उनकी कहानियां कहीं अधिक सहज होकर आम जन के और अधिक नजदीक आती गई हैं.

उपन्यासों में जीवन की वेगवती धारा

रामदरश जी प्रेमचंद के बाद के उन गिने-चुने उपन्यासकारों में से हैं, जिन्होंने इतने बड़े काल फलक पर उपन्यास लिखे कि उनके उपन्यास देखते ही देखते भारतीय समाज का आईना बन गए. ‘पानी के प्राचीर’ हो, ‘जल टूटता हुआ’ या ‘अपने लोग’- ये इतनी बड़ी सर्जनात्मक ऊष्मा और संवेदना को लेकर चले हैं, और उनमें वर्णित घटनाएं और पात्र इतने पुरअसर हैं, कि उनके जरिए बड़े प्रामाणिक तौर पर भारतीय समाज का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है. बल्कि सच तो यह है कि रामदरश जी ने अपने उपन्यासों ने आम जनता के सुख-दुख, भीतरी द्वंद्व और तकलीफों के इतने सच्चे विवरण प्रस्तुत किए हैं, कि उनकी इन औपन्यासिक कृतियों ने भारतीय समाज को गहराई तक प्रभावित करने के साथ-साथ, एक सकारात्मक परिवर्तन के लिए भी तैयार करने का काम किया और यहां बेशक रामदरश जी प्रेमचंद के बाद, उनकी परंपरा को बड़े ही सार्थक ढंग से आगे बढ़ाते नजर आते हैं.

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‘दूसरा घर’ भी रामदरश जी के बड़े और महत्वाकांक्षी उपन्यासों में से है और पढ़ने पर दिल में अपनी तरह की थाप लगता है. कभी कोमल तो कभी थोड़े खुरदरे हाथों से भी. रामदरश जी के लंबे गुजरात-प्रवास के अनुभव इसमें बड़े सच्चे और प्रामाणिक तौर पर आए हैं. डा. गौतम के रूप में रामदरश जी की एक अत्यंत सौम्य छवि इस उपन्यास में है, जो देर तक याद रह जाने वाली है. उनकी नौकरी की अस्थिरता, कच्ची गृहस्थी और इसके साथ-साथ उनकी साहित्यिक महत्वाकांक्षाएं, सामाजिक और प्राध्यापकीय आदर्श और इसके बीच में कहीं पिरोई हुई विस्थापितों की एक अकथनीय पीड़ा, जिससे डा. गौतम के व्यक्तित्व का एक कोना निरंतर भीगा ही रहता है.

मन में गहरी गूंज उठाते संस्मरण

रामदरश मिश्र गहरे साहित्यिक संस्कारों वाले लेखक हैं, उन्होंने साहित्य सिरजा ही नहीं, बल्कि उसमें पूरी तरह रचे-बसे हैं. हिंदी के बड़े और मूर्धन्य लेखकों का आत्मीय साहचर्य उन्हें मिला, और रामदरश जी अकसर उन्हें याद करते हुए, भीतर तक भीगते हैं. इसलिए उनसे बात करते हुए निराला, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, डा. नगेंद्र सरीखे साहित्यकारों से जुड़े भावनात्मक प्रसंग सुनना खुद में एक अनुभव है. यही सुख उनके संस्मरण पढ़ते हुए मिलता है, जिनमें भाव और स्मृतियों की एक गहरी गूंज है. इन्हें पढ़ते हुए लगता है, मानो रामदरश जी उनमें उपस्थित हैं, और हमारे आगे एक-एक करके अपनी स्मृतियों के पन्ने खोलते जा रहे हैं..

रामदरश जी के संस्मरणों की चर्चित पुस्तक ‘स्मृतियों के छंद’ में हिंदी के बड़े और नामचीन साहित्यकारों के साथ ही बिकाऊ पंडित, मदनेश जी, रामगोपाल शुक्ल, विज्ञ जी जैसे गांव की मिट्टी से सने कुछ ऐसे कम जाने या अनजाने लोगों की कथाएं भी हैं जिन्हें रामदरश जी ने बड़े मन और आदर के साथ लिखा है. एक बड़ी बात यह भी है कि हिंदी के एक बड़े और प्रख्यात साहित्यकार होने के बावजूद रामदरश मिश्र आज जो कुछ हैं, उसे बनाने का सर्वाधिक श्रेय वे इन्हीं गंवई शख्सियतों को देते हैं, जिन्होंने उनके भीतर साहित्य के संस्कारों का बीजारोपण किया था. दिल्ली में इतने बरस रहकर भी वे उनके माटी-पुते चेहरे का रस-आनंद, सहज उल्लास और पीड़ाएं आज तक नहीं भूल पाए.

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साहित्य की दुनिया से प्रथम परिचय के दौर की रामदरश जी की स्मृतियों में बिकाऊ पंडित सबसे पहले आते हैं. और यह स्मृति अब भी जैसे उनके भीतर बाल-मन की नशीली मिट्टी पर लिखी हुई है, “वे आए तो आंखों का तेज देखकर भय लगा, किंतु उस तेजी के भीतर छिपी हुई वत्सलता उभरती गई और आतंक आश्वस्ति में बदलता गया. फिर तो उस गंवई यायवर के व्यक्तित्व और प्रतिभा के न जाने कितने रंग उभरते गए. वे हर विषय के पंडित थे. हर विषय को पढ़ाते समय उनका रोम-रोम जैसे स्फूर्त हो उठता था.”

कुल मिलाकर इन संस्मरणों में जो गाढ़ा-गाढ़ा जीवन रस का झरना और विश्वसनीय सादगी है, वह बेमिसाल है. इस लिहाज से हमें इन जीवंत संस्मरणों के लिए रामदरश जी का शुक्रगुजार होना चाहिए.

आत्मकथा में अपने समय की कथा

रामदरश जी की असाधारण कृतियों में उनकी आत्मकथा ‘सहचर है समय’ भी है,  जिसे पढ़ते हुए एक दिग्गज और कालजयी लेखक के रूप में उनकी छवि हमारे सामने आती है. है तो वह आत्मकथा ही, लेकिन किसी उपन्यास से ज्यादा दिलचस्प और बांध लेने वाली. ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ते हैं, रामदरश जी के मनुष्य और लेखक का कभी न मिटने वाला चित्र हमारी आत्मा के परदे पर बनता चला जाता है. और वह कभी धुंधला नहीं पड़ता.

‘सहचर है समय’ निस्संदेह रामदरश जी की एक बड़ी और शाहकार कृति है, जिसे पढ़कर पता चलता है कि निपट गंवई गांव का एक अभावों में पलता और थोड़ा-सा झिझका हुआ भयकातर बच्चा कैसे धीरे-धीरे अपनी सीमाओं और अभावों से टकराता है, अपने समय के थपेड़े झेलता है और धीरे-धीरे राह बनाता हुआ आगे निकलता जाता है. इस रास्ते में उसे दुख, अपमान, बार-बार की पराजय, विश्वासघात के धक्के और जख्म, क्या कुछ नहीं मिला लेकिन सबको वह अपने समय का प्रसाद मानकर ग्रहण करता है.

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रामदरश जी की आत्मकथा में यह सब है और एक ऐसे महाकाव्यात्मक औदात्य का हिस्सा बनकर आया है. लिहाजा बहुत छोटे-छोटे मामूली प्रसंग भी समय की कथा में ढलकर एक बृहत्तर अर्थ के वाहक हो जाते हैं.

‘जहां मैं खड़ा हूं’, ‘रोशनी की पगडंडियां’, ‘टूटते बनते दिन’, ‘उत्तर पथ’ और ‘फुरसत के दिन’ इन पांच खंडों में विभाजित रामदरश जी की आत्मकथा का आत्मविस्तार गजब का है और शायद इसीलिए उसका आस्वाद सचमुच निराला है. कहीं-कहीं आत्मकथा की हदबंदियों से बाहर भी. लगभग किसी उपन्यास जैसा, बल्कि उससे भी बढ़कर एक महाकाव्यात्मक उपन्यास की तरह, जिसमें सीधे-सादे शब्द, सीधी-सादी अभिव्यक्तियां हैं, मगर जिसके एक-एक शब्द पर आप यकीन कर सकते हैं.और लिखने का ढंग कुछ ऐसा कि जैसे कोई छोटी सी मामूली बात कही जा रही हो, मामूली ढंग से कहीं जा रही हो. मगर फिर देखते ही देखते उस छोटी सी बात में बड़े अर्थ प्रकाशित होने लगते हैं, और मामूलीपन असाधारण हो जाता है और कुछ आगे चलते हैं तो आप खुद को इस आत्मकथा के गहराते हुए प्रभाव की गिरफ्त में पाते हैं.

इस समय जब रामदरश जी अपनी उम्र के आखिरी चरण में हैं, वे अब भी अपनी धुन में जी रहे हैं, और बड़े सक्रिय रूप से लिख और पढ़ रहे हैं. उन्होंने दिल्ली में एक लंबा और समृद्ध जीवन जिया है और गांव के आदमी के ठाट और स्वाभिमान के साथ जिया है. लिहाजा उनके पास अनुभवों की कोई कमी नहीं है. इस पकी हुई उम्र में भी, वे जिस विधा को हाथ लगाते हैं, उसमें कुछ न कुछ नयापन ले आते हैं.

रामदरश जी ने पूरी शिद्दत से इस दुनिया को चाहा है, जी भरकर प्यार किया है, और शायद सपने में भी इससे परे जाने की बात नहीं सोच सकते. वे तो इस दुनिया के हैं, इसकी धूल. मिट्टी, खेत, नदी, रेत और कछारों से जुड़े हैं, इसलिए हमेशा-हमेशा इस दुनिया में ही रहेंगे. जिस कवि-कथाकार ने अपने अस्तित्व का कण-कण, रेशा-रेशा इस दुनिया को दे दिया हो, वह भला शतायु होने के दुर्लभ सुख-आनंद के पलों में अपनों से दूर जा भी कहां सकता है? तो रामदरश जी हमेशा से इस दुनिया के थे और इस दुनिया के ही रहेंगे. यही उनकी कविता और सर्जना की चरम सार्थकता भी होगी.

Source (PTI) (NDTV) (HINDUSTANTIMES)

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