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अफगानिस्तान, श्रीलंका, पाकिस्तान… और अब बांग्लादेश, एशिया के देशों में क्यों दम तोड़ रही डेमोक्रेसी?

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की राजनीति के प्रसिद्ध विशेषज्ञ डॉ. चार्ल्स एच. कैनेडी ने एक चर्चित आर्टिकल लिखा था. इसका शीर्षक था, ‘अ यूजर गाइड टू गाइडेड डेमोक्रेसी’. इस आर्टिकल में उन्होंने व्यंग्यात्मक रूप से 10 Steps की रूपरेखा तैयार की थी जो पाकिस्तान के किसी भी नए शासक के लिए, अपना शासन मजबूत करने में मदद कर सकते थे.

खासतौर पर जिनका उपयोग पाकिस्तान के सभी सैन्य तानाशाहों ने लगभग करते भी आ रहे थे. ये आर्टिकल पाकिस्तान के 1947 से शुरू हुए इतिहास पर आधारित था और इसमें उन सभी सैन्य तख्तापलट की कहानी थी, जो पाकिस्तान में 1958, 1978 और 1999 में हुए थे. खास बात ये कि सभी सैन्य शासकों ने तख्तापलट के बाद जिस रणनीति का इस्तेमाल किया, वह लगभग एक जैसी थीं. 

इनमें शामिल थे, राजनीतिक विरोधियों को परेशान करना, संविधान से छेड़छाड़, सरकारी सिस्टम में हेरफेर और कानूनों का इस्तेमाल सिर्फ अपने बचाव के लिए करने की रणनीति. जाहिर तौर पर पाकिस्तानी आवाम इन सैन्य शासनों से त्रस्त ही रही है, लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान ऐसे मुल्क का उदाहरण है, जहां कई बार तख्तापलट हुए हैं और मौजूदा स्थिति में भी इसका डर बना रहता है. 

क्यों होते हैं तख्तापलट?
सवाल उठता है कि सैन्य शासन का हाल देख लेने और समझ लेने के बावजूद तख्तापलट क्यों होता है? आज ये सवाल इसलिए भी मौजूं है कि भारत का एक और पड़ोसी देश बांग्लादेश, जो कभी पाकिस्तान का ही हिस्सा था, वहां एक बार फिर से तख्तापलट हो गया. हालांकि बांग्लादेश का इतिहास भी पाकिस्तान की ही तरह तख्तापलट वाला रहा है. सोमवार को बांग्लादेश की पीएम रहीं शेख हसीना को हिंसक विरोध-प्रदर्शनों के बीच इस्तीफा देना पड़ा और नौबत यह आ गई कि उन्हें मुल्क भी छोड़ना पड़ गया. आज जिस स्थिति में पूर्व पीएम शेख हसीना और बांग्लादेश हैं, यह स्थिति दक्षिण एशिया के कई देशों की रही है, जिनमें बांग्लादेश और पाकिस्तान के ही साथ म्यांमार, अफगानिस्तान और श्रीलंका भी शामिल है. सवाल ये है कि मांग और जरूरत के बावजूद इन देशों में डेमोक्रेसी दम क्यों तोड़ देती है? सवाल ये है कि तख्तापलट इतनी आसानी से कैसे हो जाते हैं?

पाकिस्तान में क्यों स्थापित नहीं है स्वस्थ लोकतंत्र?
पाकिस्तान पर लौटते हैं. यहां लोकतंत्र का ढिंढोरा तो खूब पीटा गया, लेकिन हकीकत ये है कि 1947 में भारत से विभाजन के ही साथ यहां सेना का हस्तक्षेप सत्ता में रहा है और इस पड़ोसी मुल्क ने कई दशक सैन्य शासन में ही गुजारे हैं. आज तक पाकिस्तान के इतिहास में एक भी प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया, या फिर कि उन्हें करने नहीं दिया गया. या तो सेना ही सत्ता में रही है या फिर सत्ता में सेना ऐसा दांव चलती है कि सत्ता और यहां तक कि अफसरों को खुद भी सेना के सांठ-गांठ में ही चलना होता है. आजाद होने के साथ ही सेना ने अपने प्रभुत्व का ऐसा अहसास कराया है कि पड़ोसी मुल्क की आवाम इससे निकल ही नहीं पायी है. 

सेना ने कैसे जमाया पाकिस्तान में प्रभुत्व?
बीबीसी की एक रिपोर्ट में किंग्स कॉलेज लंदन में डिपार्टमेंट ऑफ मिलिट्री स्टडीज की सीनियर फेलो और पाकिस्तानी मामलों की विश्लेषक आयशा सिद्दिकी कहती हैं कि, ‘पाकिस्तान के लिए सुरक्षा का मुद्दा सबसे अहम रहा है. यही वजह है कि सेना को यहां शुरू से ही अहमियत मिल गई. फिर धीरे-धीरे यह उस स्थिति में आ गई जहां वह राजनीति को प्रभावित कर सके. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सेना काफी महत्वपूर्ण हो गई क्योंकि वहां राष्ट्र की सुरक्षा सबसे अहम मुद्दा बन गई थी. इसके बाद सेना एक स्वायत्त संस्थान बन गई.” 

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सेना ही रही है सत्ता में प्रभावी
वहीं पाकिस्तान में सेना की ताकत का प्रभाव बताते हुए जामिया मिल्लिया इस्लामिया के एकेडमी ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर अजय दर्शन बेहेरा का कहना है, “1951 तक ब्रिटिश जनरल पाकिस्तान की सेना का नेतृत्व करते रहे. इसके बाद सेना की कमान जनरल अयूब खान को सौंप दी गई थी. एक तरफ पाकिस्तान का संविधान लिखने में देरी हो रही थी, वहीं सेना अपनी पकड़ देश में मजबूत करती जा रही थी. चूंकि पाकिस्तान लंबे-लंबे अरसे तक सीधा सेना के अधीन रहा है, इस वजह से भी वहां लोकतंत्र कभी पनप नहीं पाया.”

सुरक्षा कारणों का हवाला देकर थोपी अहमियत
इस तरह पाकिस्तान ने शुरुआत में सुरक्षा कारणों को अहम बताते हुए मुल्क पर अपना प्रभुत्व जमा लिया और फिर सीधे सत्ता में हस्तक्षेप की स्थिति में आ गई. पाकिस्तान में राजनीतिक नेतृत्व लगातार सेना पर निर्भर होता रहा, लिहाजा सेना और राजनीतिक नेतृत्व कभी अलग नहीं हुआ. पाकिस्तान में पहला सैनिक तख्तापलट 1956 में जनरल अयूब खान के नेतृत्व में हुआ. इसके बाद सिविल-मिलिट्री गठजोड़ अस्तित्व में आया, जिसमें नौकरशाहों के हाथ में काफी ताकत थी. लिहाजा नौकरशाह, सेना और खुफिया एजेंसियां ताकतवर बन कर उभरीं.

आर्थिक मसलों में भी सेना का दखल
इस गठजोड़ का नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान में दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाएं कभी पनप ही नहीं सकीं और पूरा पाकिस्तान सैन्य शासन की लता में लिपटता चला गया. राजनीति में दखल देने के बाद सेना ने अगल कदम उठाया और आर्थिक मसलों पर भी अपना दखल बढ़ाया. यहां सेना कारोबारी भी है और खेती के साथ-साथ इंडस्ट्री भी चला रही है. ऐसे सैकड़ों कारोबार है, जिनमें सेना सीधे शामिल है और सरकार का 30 फीसदी खर्च भी उठाती है. इसमें रक्षा बजट और पेंशन भी शामिल है. किसी समाज और लोकतांत्रिक प्रणाली को नियंत्रित करने के लिए इससे अधिक क्या चाहिए. 

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विदेश नीति भी सेना के शिकंजे में
इसके बाद बची विदेश नीति तो पाकिस्तान की सेना का इस फील्ड में पूरा हस्तक्षेप नजर आता है. इसका उदाहरण के रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान के एक वाकये से मिल जाएगा. पाकिस्तान के आर्मी चीफ क़मर जावेद बाजवा ने यूक्रेन पर रूस के हमले का समर्थन नहीं किया था, लेकिन तब रूस पहुंचे पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि वह इस युद्ध पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते हैं. 

पाकिस्तान में कब-कब तख्तापलट
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र ठीक से पनपे, ऐसी स्थिति वहां कभी बनी ही नहीं. पाकिस्‍तान में 4 बार सैन्य तख्‍तापलट हुआ है. पहला तख्‍तापलट 1953-54 में हुआ. इसके बाद 1958 में सत्ता बदली. फिर 1977 और इसके बाद साल 1999 में तख्‍तापलट हुआ है. साल 1999 में करगिल की जंग के बाद पाक में तख्‍तापलट हुआ था. उस घटना में तबके पाक आर्मी चीफ जनरल परवेज मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को हटाकर सत्‍ता पर कब्जा कर लिया था. 

पाकिस्तान से अलग नहीं बांग्लादेश का इतिहास
बात करें बांग्लादेश की तो यहां का इतिहास पाकिस्तान से अलग नहीं रहा है, बल्कि पाकिस्तान जैसी ही स्थितियां यहां भी रही हैं. साल 1971 में यह पाकिस्तान से अलग जरूर हो गया था लेकिन इस पर पाकिस्तानी तौर-तरीके का पूरा असर था. 1971 में बांग्लादेश की आजादी के बाद सिर्फ पहले 5 साल ही यहां सरकार चल पाई थी. पाकिस्तान से अलग होने के बाद 7 मार्च 1973 को बांग्लादेश में पहली बार आम चुनाव हुए, बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले शेख मुजीबुर रहमान की अध्यक्षता में अवामी लीग ने चुनाव में एकतरफा जीत दर्ज की, लेकिन इसी जीत के साथ देश में एक निरंकुश स्थिति भी पैदा हुआ और यहीं से जनता के मन में रोष पैदा होना शुरू हुआ. 

बांग्लादेश के इतिहास में कब-कब हुए तख्तापलट?
15 अगस्त 1975 को बांग्लादेशी सेना के कुछ जूनियर अधिकारियों ने शेख मुजीब के घर पर टैंक से हमला कर दिया. इस हमले में मुजीब सहित उनका परिवार और सुरक्षा स्टाफ मारे गए. 1975 में जब मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी गई तो अगले डेढ़ दशक तक बांग्लादेशी सेना ने सत्ता संभाली. 1978 और 1979 के बीच राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव पूर्व सेना प्रमुख जियाउर रहमान के नेतृत्व में हुए, लेकिन धांधली के आरोपों से ये भी नहीं बच सके.  साल 1981 में, जियाउर रहमान की हत्या के बाद, उनके डिप्टी अब्दुस सत्तार ने 15 नवंबर को आम चुनाव कराए. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने फिर से 65 प्रतिशत वोट के साथ जीत हासिल की. सेना प्रमुख रहे हुसैन मुहम्मद इरशाद ने 1982 में तख्तापलट करके सत्ता संभाली. 

बांग्लादेश में भी सेना का सत्ता में सीधा हस्तक्षेप
1988 में हुसैन मुहम्मद इरशाद को सत्ता से हटाने की मांग को लेकर बांग्लादेश में एक बार फिर बड़े विरोध प्रदर्शन हुए, इसके परिणामस्वरूप 1990 का लोकप्रिय विद्रोह हुआ जिसने हुसैन इरशाद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. इस तरह बांग्लादेश में भी तख्तापलट का एक लंबा इतिहास रहा है, जो सेना के राजनीति में हस्तक्षेप के कारण रहा है.

शेख हसीना ये स्थिति कैसे बनी?
हालांकि शेख हसीना का इस बार का तख्तापलट सैन्य तख्तापलट नहीं कहा जा रहा है, लेकिन इसमें विपक्षी दलों की मिलीभगत, आतंकी साजिश और विदेशी ताकतों के हस्तक्षेप की बात कही जा रही है, जिन्होंने छात्र आंदोलन की बहती गंगा में अपने हाथ धोए हैं.  सोमवार को एक बड़े ही नाटकीय घटनाक्रम के बीच बांग्लादेश की पीएम रहीं शेख हसीना को इस्तीफा देना पड़ा और नौबत यह आ गई कि उन्हें आनन-फानन में देश छोड़कर भागना पड़ा. इस पूरे सियासी घटनाक्रम की वजह बना छात्रों का विरोध प्रदर्शन, जो बीते जुलाई से वहां हो रहा था. एक बारगी तो पुलिस प्रशासन इस हिंसक प्रदर्शन को दबाने में कामयाब रहा था, लेकिन ये कामयाबी बड़े तूफान से पहले की शांति के ही जैसी थी. इसके बाद आने वाली तबाही पर शायद बांग्लादेश की सत्ता ध्यान नहीं दे पाई और स्थिति इस कदर बिगड़ गई, जिसकी परिणति सोमवार को हुई घटनाक्रम के तौर पर हुई. 

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हिंसक प्रदर्शन के बाद पीएम पद से शेख हसीना का इस्तीफा
बांग्लादेश में हिंसक प्रदर्शन और तकरीबन 300 लोगों की मौत के बाद शेख हसीना को इस्तीफा देना पड़ा. बांग्लादेश में हजारों प्रदर्शनकारी सोमवार को राजधानी ढाका में शेख हसीना के आधिकारिक आवास में घुस गए और तोड़फोड़ की. प्रदर्शनकारियों ने उनके पिता मुजीबुर्रहमान की मूर्ति को हथौड़ों से तोड़ दिया और उनकी पार्टी के कार्यालयों में आग लगा दी. 76 वर्षीय हसीना ने अपनी सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के बीच इस्तीफा दे दिया है.

क्या रही विरोध-प्रदर्शनों की वजह?
बता दें कि 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए 30% सरकारी नौकरियों को आरक्षित करने वाली कोटा प्रणाली को समाप्त करने की मांग के साथ पिछले महीने शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन, बाद में सरकार विरोधी प्रदर्शनों में बदल गया. सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमान की ओर से शेख हसीना के इस्तीफे की घोषणा के बाद अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए देश भर में उत्साही भीड़ सड़कों पर उतर आई.

पाकिस्तान-बांग्लादेश में अस्थिरता की एक वजह ये भी
पाकिस्तान और बांग्लादेश को लेकर बड़ी बात ये है कि ये दोनों देश धर्म और भाषा के आधार पर अस्तित्व में आए हैं. सबसे बड़ी बात इनके अस्तित्व में आने का इतिहास भी भीषण रक्तपात से जुड़ा हुआ है. इन दोनों ही मुल्कों में हमेशा से ही सेना का नियंत्रण रहा है. इसलिए इन दोनों मुल्कों में पहले से ही सेना की बगावत के उदाहरण के सेट हैं और तख्तापलट यहां सत्ता हथियाने का एक आसान तरीका बन जाता है. दोनों ही देशों में सेना को मिली विशेष ताकतें भी इसकी एक वजह है. बल्कि पाकिस्तान में कोर्ट की ओर से कई बार सेना के तख्तापलट प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सही ठहराया गया है. हालांकि बांग्लादेश में वर्तमान स्थिति में सेना की भूमिका को छोड़ दें तो यहां भी पहले सैन्य तख्तापलट हो चुका है. बांग्लादेश में इस बार हुआ तख्तापलट श्रीलंका में हुए तख्तापलट से मेल खाता है.

श्रीलंकाः जब 2022 में जनता ने किया था तख्तपलट 
भारत के एक और महत्वपूर्ण पड़ोसी श्रीलंका ने भी तख्ता पलट जैसी स्थिति झेल ली है. साल 2022 में जब श्रीलंका में आर्थिक संकट गहराया तो वहां जनता का गुस्सा भड़क गया था. प्रदर्शनकारियों ने वहां राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया था. राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को उस समय देश छोड़ना पड़ गया था. उस समय भी प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन में घुसकर तोड़फोड़ की थी. 2022 का श्रीलंकाई राजनीतिक संकट राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और वहां के लोगों के बीच संघर्ष के कारण उत्पन्न हुआ था. आर्थिक संकट के कारण जनता सड़क पर उतरी थी.

क्यों खिलाफ हो गई थी जनता?
साल 1948 में श्रीलंका जब ब्रिटेन से आजाद हुआ था, उसके बाद से श्रीलंका अपने सबसे खराब आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था. यह साल 2022 का समय था, जब ऐसे हालात में जनता भोजन, ईंधन और दवाओं की भारी कमी से परेशान थी. इस संकट के लिए लोग मौजूदा राजपक्षे सरकार के खिलाफ हो गए थे और पीएम के इस्तीफे की मांग को लेकर हिंसक विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए थे.

श्रीलंका में जनाक्रोश की बड़ी वजहें
हुआ यूं कि श्रीलंका ने चीन से बड़ा लोन लिया और फिर इनसे जो परियोजनाएं शुरू की वह सफेद हाथी साबित हुई. दक्षिणी हंबनटोटा जिले में बंदरगाह पर परिचालन शुरू होने के बाद ही पैसों की बर्बादी होने लगी. 6 सालों में $300 मिलियन का नुकसान हुआ. यहां एक बड़ा कॉन्फ्रेंस सेंटर खुला जो किसी काम नहीं आया, $200 मिलियन की लागत से तैयार हवाई अड्डा भी किसी तरह से लाभकारी नहीं हो सका. राजपक्षे परिवार दो दशकों से श्रीलंका की राजनीति में प्रभाव बनाए हुए था. श्रीलंका के इतिहास में सबसे बड़ी कर कटौती की घोषणा की, जिसके कारण सरकार के बजट घाटे जबरदस्त वृद्धि हुई. इसके बाद अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने जल्द ही श्रीलंका की रेटिंग को डाउनग्रेड कर दिया. पूरे विश्व में कोरोना महामारी का बुरा दौर आया और श्रीलंका में विदेशी सैलानियों का आना बंद हो गया. इसके अलावा विदेशों में काम करने वाले श्रीलंकाई नागरिकों की आय पर भी असर पड़ा.  

कर्ज, खाद्य पदार्थों की किल्लत
2021 के आखिरी तक श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार 2.7 बिलियन डॉलर से घटकर 2.7 बिलियन डॉलर हो गया था. व्यापारियों को आयात होने वाले माल को खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा के स्रोत के कारण संघर्ष करना पड़ा. चावल, दाल, चीनी और दूध पाउडर जैसे खाद्य पदार्थ अलमारियों से गायब होने लगे, जिससे सुपरमार्केट को उन्हें राशन देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. ये वजहें थी, जिससे जनता आक्रोशित हो गई और तत्कालीन राजपक्षे सरकार इन खामियों पर कोई प्रभावी फैसला नहीं ले पाई. लिहाजा यहां जनता ने सरकार के खिलाफ ही बगावत कर दी.

अफगानिस्तान के भी इतिहास में तख्तापलट
अफगानिस्तान का भी इतिहास तख्तापलट का ही रहा है, जो कि भारत के तीन पड़ोसियों से कुछ खास अलग नहीं रहा है. यहां तालिबान राज आने के बाद तख्तापलट हुआ था. साल 2021 में जब अमेरिका ने करीब 20 साल बाद अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली तो वहां हालात बिगड़ गए थे. इस फैसले ने देश में तालिबान को फिर पैर पसारने का मौका दे दिया था. तालिबान ने अगस्त 2021 में काबुल पर कब्जा कर लिया. उस समय अफगानिस्तान की सेना को हार मानना पड़ा. राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़ने को मजबूर हो गए थे. उसके बाद से अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार है.

म्यांमार में भी सेना ने किया था तख्तापलट
भारत का पड़ोसी देश म्यांमार भी तख्तापलट का दृष्य देख चुका है. साल 2015 में म्यांमार में चुनाव हुए थे, जिसमें आंग सान सू की की पार्टी ने एकतरफा जीत दर्ज की थी. हालांकि, वो राष्ट्रपति नहीं बन सकीं. इसके बाद 2020 के चुनाव में उन्होंने फिर सफलता हासिल की. हालांकि म्यांमार की सेना ने उनकी जीत पर सवाल खड़े कर दिए. फरवरी 2021 में म्यांमार सेना ने आंग सान सू ची समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और सत्ता अपने साथ में ले ली थी. हालांकि इस सैन्य तख्तापलट के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन हुए थे. इसमें कई लोगों की जान भी गई थी.

भारत में क्यों नहीं है तख्तापलट का इतिहास, क्यों समृद्ध है लोकतंत्र?
इस सवाल का एक जवाब तो यही है कि भारत में ऐसी कोई स्थिति न आने की सबसे बड़ी वजह है इसका समृद्ध इतिहास. इसके साथ ही आजादी मिलने के साथ ही विरासत में मिली जिम्मेदारी की भावना. फिर, इतिहास में ऐसी कुछ प्रारंभिक घटनाएं हुईं, जिनमें ये संदेश दिया गया कि सेना, राष्ट्र का जरूरी अंग जरूर है, लेकिन सत्ता में हस्तक्षेप का अधिकार उसे नहीं है. भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं इतनी मज़बूत हैं कि भारत में सेना के लिए तख़्तापलट करना बिल्कुल भी असंभव है. भले ही भारतीय सेना का बुनियादी ढांचा ब्रिटिश सैनिकों का दिया हुआ है, लेकिन इसकी आत्मा में आजाद हिंद फौज का अनुशासन भी है. यह अनुशासन ही भारतीय सेना को सत्ता की आकंक्षा से दूर रखता है. 

जब आजाद हुआ देश और स्थापित हुई सेना
देश में जब पहली बार अंतरिम सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय सेना को लोकतांत्रिक सरकार के नियंत्रण में रहने का सिद्धांत बनाया था. ऐसे में उन्होंने कमांडर इन चीफ़ का पद हटा दिया था. पहले इस पद पर अंग्रेज़ी शासन के दौरान अग्रेज ऑफिसर्स की तैनाती होती थी, बाद में इस पद पर जनरल करियप्पा को नियुक्त किया गया था.

जनरल करियप्पा और पंडित नेहरू 
जनरल करियप्पा को पहला थल सेना अध्यक्ष बनाया गया. उस समय कमांडर इन चीफ़ का आवास तीन मूर्ति होता था, जिसे बाद में पीएम नेहरू ने अपना आवास बनाया. इस तरह यह साफ संदेश गया कि भारत में लोकतांत्रिक सरकार ही सुप्रीम रहेगी. एक बार जनरल करियप्पा ने सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की तो पीएम नेहरू उन्हें पत्र लिखकर नागरिकों के द्वारा चुनी गई सरकार के काम में दख़ल न देने को लेकर भी हिदायत दी थी. जनरल करियप्पा और पंडित नेहरू के संबंधों को लेकर कई किताबों में कई तरह के दावे सामने आते हैं. जनरल करियप्पा के बेटे एयर मार्शल के.सी. करियप्पा ने अपनी किताब में लिखा है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू को इस बात का डर था कि मेरे पिता उनका तख्तापलट कर सकते हैं, क्योंकि वह पॉलिटिकली भी काफी पॉपुलर थे, हालांकि जनरल करियप्पा की तरफ से कभी ऐसी किसी बात की गुंजाइश नहीं मिली.

लोकतंत्र का ही हिस्सा है भारतीय सेना
भारत में लोकतंत्र की जो नींव रखी गई, सेना भी उसका हिस्सा बन गई. फिर चुनाव आयोग, रिज़र्व बैंक जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं बनीं जिसने लोकतंत्र की नींव को काफी मजबूत किया. देश में सेना राजनीति से काफी दूर रही है, क्योंकि की नींव में अनुशासन का ऐसा सिद्धांत मौजूद है जो उसे एकजुट रखता है और साथ ही नागरिक प्रशासन में हस्तक्षेप से दूर रखता है. पड़ोसी मुल्क और साउथ एशियन देशों में इसी तथ्य की कमी है, लिहाजा वहां तख्तापलट होते रहते हैं और लोकतंत्र का दम घुटता रहता है.

Source (PTI) (NDTV) (HINDUSTANTIMES)

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